करवट बदलता भारत - 1 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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करवट बदलता भारत - 1

’’करवट बदलता भारत’’ 1

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

समर्पण—

श्री सिद्ध गुरूदेव महाराज,

जिनके आशीर्वाद से ही

कमजोर करों को ताकत मिली,

उन्‍हीं के श्री चरणों में

शत्-शत नमन के साथ-सादर

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त’’

काव्‍य यात्रा--

कविता कहानी या उपन्‍यास को चाहिए एक संवेदनशील चिंतन, जिसमें अभिव्‍यक्ति की अपनी निजता, जो जन-जीवन के बिल्‍कुल नजदीक हो, तथा देश, काल की परिधि को अपने में समाहित करते हुए जिन्‍दगी के आस-पास बिखरी परिस्थितियों एवं विसंगतियों को उजागर करते हुए, अपनी एक नई धारा प्रवाहित करें- इन्‍हीं साधना स्‍वरों को अपने अंक में लिए, प्रस्‍तुत है काव्‍य संकलन- ‘’करवट बदलता भारत ‘’ – जिसमें मानव जीवन मूल्‍यों की सृजन दृष्टि देने का प्रयास भर है जिसे उन्‍मुक्‍त कविता के केनवास पर उतारते हुए आपकी सहानुभूति की ओर सादर प्रस्‍तुत है।।

वेदराम प्रजापति

‘’मनमस्‍त‘’

पावस

प्रथम पावस के आते ही, अबनी पुलक जाती है।

अनूठे साज सज्‍जों संग, अनेकों राग गाती है।

हवाऐं चलन जो बदलें, मेहरवानी हो बदली की।

नए अरमान को लेकर, फूटतीं कौंप कदली की।

बिजुलियों की चमक लेकर धरती जब नहाती है।।

तपन का ताप मिट जाता, खुशनुमा हरित सी काया।

धूल का साज मिट जाता, नए अंकुर लें नव साया।

चिडि़या जब नहाए जब बूंदों पंखों फड़फड़ाती है।।

पतझड़ रूप नव पाऐ, श्रमिक की आस जगती है।

कृषक की जिंदगी बरसे, भूंख की भूंख भगती है।

मिट्टी महक पाते ही, खुशियां जाग जाती हैं।।

बचपन दौड़ होती है, नहाने पावसी जल में।

बरसत रजत के रूपे, बड़ी बूंदों से, भूतल में।

जहां मनमस्‍त हो धरती खुशी के राग गाती है।।

गजल-

हवा में भार होता है, हवा में प्‍यार होता है।

भला मानो, नहीं मानो, हमें ऐतबार होता है।।

पखेरू जिस हवा रहते, हमसे बहुत कुछ कहते।

बंधन है नहीं कोई, खुदा तो एक होता है।।

बंधे हो आप अपने में, नहीं बंधन यहां कोई।

भलाई कर चलो जग में, भला इंसान होता है।।

समझना है तुम्‍हें खुद में, यही तो समझदारी है।

बनाओ गैर को अपना तो जीवन धन्‍य होता है।।

कोशिश करी जिनने भी, पायीं मंजिलें उनने-

भरोसा-ले चले आगे, उन्‍हें दीदार होता है।।

गहरे डूब जो पाऐ, मोती उन्‍हीं के हाथों-

समय मनमस्‍त है थोड़ा पाता वही जो बोता है।।

कवि-उर-व्‍यंजना है-

संसार है, मृदुमृतिका का रूप प्‍यारा।

सुमन उदगार ही है, गंध धारा।

चांदनी है चांद की अनुपम धरोहर।

रजनि का श्रंगार तारक छवि निहारा।।

सुबह, सविता का मृदुल उपहार है।

लहर, सागर का सुचिंतन प्‍यार है।

वाटिका का, सार-सौरभ-सुमन महकन।

अनिल, अम्‍बर का सही आधार है।।

कोकिला का गीत है, मनुहार उसका।

नृत्‍य केकी का सुरम्‍य श्रृंगार उसका।

पावसों का है बुलावा, मेघ गर्जन।

दीप-रागी वसन ही है, तडि़त जिसका।।

राग में, रागी-हृदय का मधुर गुंजन।

मुक्‍तता की भोर है, खग कुली कुंजन।

तार की झंकार, बीणा का स्‍वरोदय।

स्‍वरों की संगत क्रिया, मनमोद रंजन।।

प्रकृति का संसार है, मानव कहानी।

अनल-विधुत सार है, ऊर्जा रबानी।

भावनाओं से सजी, जब-जब है सरगम-

गीत, कवि-उर व्‍यंजना ही जाय मानी।।

मुक्‍तमय संसार ---

जब उठें उदगार, उर तब बोलता है।

मन-मयूरी नृत्‍य, पावस डोलता है।

लहर की चालों में, सागर की रवानी-

सुमन परिमिल रंग मौसम खोलता है।।

गुलों पर, गुल गोल होती तितलियां हैं।

मेघ पर, बलिहार होतीं बिजलियां हैं।

वायु, मौसम की अनूठी पहल लाती।

चन्द्रिका देती हमें नव उजलियां हैं।।

श्रमिक का श्रृंगार, श्रम-सीकर मनोहर।

कृषक का उदगार, फसलों की धरोहर।

भींगती जब प्रेम की धरती संजीली-

बरसते हैं मेघ बनकर के मनोहर।।

राग के अनुराग डूबै मानवी जब।

मोद-अनुमोदन करे श्रृंगार ही तब।

किलकतीं दसहौं दिशाऐं, प्‍यार लेकर।

इक नयी राहौं चले संसार ही तब।।

एक नया-सा गीत उपजेगा जभी तो।

जो किसी ने नहिं सुना होगा, कभी तो।

नई दिशा, पर मानवी चलती दिखेगी।

मुक्‍त मय संसार होगा ही, तभी तो।।

वीर साबरकर--

अखण्‍ड भारत के मसीहा बीर साबरकर हमारे।

राजनेता, दूरदर्शी, कवि, लेखक रूप सारे।।

विभाजन था नहीं स्‍वीकार अखण्‍डता के थे पुजारी।

मृत्‍यु भी स्‍वीकार थी, पर थी विरोधी दाबेदारी।

राष्‍ट्रवादी क्रान्तिकारी, सुद्धचिंतक बीर सैनिक-

राष्‍ट्र के उत्‍थान हित, हिन्‍दुत्‍व के पूरे पुजारी।

चाहतें इतिहास भी, सच्‍चाइयों का रूप धारे।।

गांव भागुर, निकट नाशिक, महाराष्‍ट्रे जन्‍म लीना।

अट्ठाईस मई अठारह तेरासी, राधा गोदी धन्‍य कीना।

पिता दामोदर पंत, गणेश नारायण थे सहोदर भाई-

नयना बाई बहिना के संग, नव वर्षों तक प्‍यार लीना।

वर्ष अठारह निन्‍यानबै में, स्‍वर्ग को पितु भी सिधारे।।

उन्‍नीस सौ एक में, मैट्रिक की, धरा नाशिक कष्‍ट सहते।

बी.ए. फर्गुयुसन से ही करके, संगठन अभिनव में रहते।

पांच में होली जलाई थी, विदेशी वस्‍त्र, सबने-

पत्रिकाएं भर गई थीं, क्रान्ति के जो लेख लिखते।

दस मई सन सात में, आजादी हित, कर कलम धारे।।

द इंडियन वार ऑफ इन्डिपेन्‍डेन्‍ट पुस्‍तक, आठ में ही तो दिखी थी।

जो सत्‍तावन के गदर को, संग्राम संज्ञा दे लिखी थी।

छपी थी हालेण्‍ड में बार-एट-ला लन्‍दन किया नौ।

कर लिए गिरफ्तार पेरिस, मई तेरह-दस रही थी।

हो गए आजीवन कैदी, चौबीस दिसम्‍बर रूप धारे।।

था नया इतिहास आजीवन सजा दो बार पाई।

सात अप्रैल ग्‍यारह को, सेलुलर काला पानी जेल भाई।

यंत्रणा थीं जहां कठिन, भर पेट खाना-भी न मिलता-

पोर्टब्‍लेयर जेल में, इक्‍कीस तक रह, मुक्ति पाई।

इसी समय स्‍वदेश लौटे, हिन्‍दुत्‍व पर लिखे ग्रंथ न्‍यारे।।

समाज सुधारो में समर्पित था किया अपने को इनने।

समय सैंतालिस तक तथा अंतिम समय तक याद रखने।

दस वर्ष का काल इनका, संगठन हित गया बीता-

बोस से भी भेंट करके, देश को दी शाख इनने।

अखण्‍ड भारत के लिए, संघर्ष इनके रहे सारे।।

विभाजन की रूपरेखा पर, दुखी हो यह कहा था।

अधूरा है स्‍वप्‍न मेरा, नयनों से आंसू बहा था।

संधि पत्रों से कभी, बंधती नहीं है राष्‍ट्र सीमा-

युवा जन के पराक्रम से, देश में गौरव रहा था।

पांच फरवरी अड़तालिस को बंदी किया फिर कारागारे।।

सत्‍तावन की सताब्‍दी पर मुख्‍य वक्‍ता रूप पाया।

डी.लिट. उपाधि मानद इन्‍हें दी सन उनसठ का वर्ष आया।

पर समय का चक्र जो-रूकता नहीं है कभी रोके-

यमुना बाई पत्‍नी ने, तिरेसठ नवम्‍बर, अबसान पाया।

तेज ज्‍वर पैंसठ सितम्‍बर घिर गए नेता हमारे।

स्‍वास्‍थ्‍य इतना गिर गया कि समय से लड़ भी न पाए

चिन्‍तनों की उर्वरा भू ने भी बीजे नहिं उगाए।

दस बजे छब्‍बीस फरवरी- छियासट बम्‍बई धरा पर।

छोड़ सब कुछ यहां का यहां गीत अंतिम गए गाए।

अजय भारत भूमि हो, मनमस्‍त जीवन, जियें सारे।।

बी.एस.एफ. टेकनपुर--

ग्‍वालियर नगर का सच में धरोहर जान टेकनपुर।

घना जंगल, घनी झाड़ी अनेकों खाइयां, गहबर।

सिंह से स्‍यार तक रहते, बनैले जीब हिंसक भी-

ग्‍वालियर राज्‍य का अनुपम आईना एक है सरोबर।।

पथिक को मोह लेती थी, धरा की रम्‍यता प्‍यारी।

कल कल बह रहा झरना, प्रकृति बलिहार थी सारी।

बनैले पुष्‍प बांधों से था महका यहां का जीवन।

तटों पर वृक्ष झुक झूमें, कूकें कोयलें न्‍यारी।।

खेलें सिंह शाबक भी-शश के बाल लालों संग।

नहीं थी विषमता कोई, रंगे सब एकता के रंग।

मयूरी पंख संग खेलें, विषैले सांप आकर भी-

विडालों संग रहें चूहे, कबड्डी संग करते जंग।।

विटप से लिपट कर बेलें, प्रणय का हार बन जातीं।

सुमन बहु रंग के पोकर, विजय की माल हो जाती।

लगैं गल बांह सी डालें, झूलत-झूलतीं झुक-झुक।

फलों से लद जमी जातीं, प्रणय उपहार पा जातीं।।

करीली कुंज में बैठी, कोयल, गीत जब सुनते।

बनैले जीवन मोहित हो, मन में क्‍या नहीं गुनते।

झरना धार रूक जाती हवा भी बैठती कुंजों-

नया संसार होता था, सभी कोई प्‍यार थे बुनते।।

बड़ा भाग्‍य है गंजापन--

गंजे कभी श्रृंगार को रोते नहीं देखे।

कांच कंघों के लिए मोहताज नहीं देखे।।

हैं हजामत साज के वे हमसफर हमदम।

फुल हजामत की रकम, देते हुए देखे।।

तेल-साबुन की बचत, सब घर खुशी मानें-

धन-कुबेरों की कड़ी में, सब करैं लेखे।।

भोर की सीधी उरइयां, भाल पर खेले।

हवा भी ठंडी महक आ दण्‍ड नित पेले।।

तनिक से पानी से पूरा नहान हो जाता।

लगते नहीं है कभी भी सिर गंदगी मेले।।

जुऔं की होती नहीं है वहां बस्‍ती भी-

हाथ सिर फिरता रहै, ज्‍यौं आशिशें ले ले।।

अल्‍लाह ने यह सभी कुछ, मनमस्‍त को दीना।

चटा-पट है खोपड़ी क्‍यों भार सिर झेले।।

--जिंदगी है तजुर्बों भरी....--

जिंदगी है तजुर्बों भरी शायरी,

जिसका मक्‍ता औ शेरे रहा आदमी।

जो दीगर उसूलों पर जीता रहा,

आदमी भी वो होकर, नहीं आदमी।।

बख्‍त कहता सदां, राहें अपनी बना,

जिंदगी की हकीकत, समझ आज भी।

कितने शोरे-शराबे से निकला अभी,

फेर उल्‍टी ही राहों, चला आदमी।।

मोड़ ले ये कश्‍ती, किनारे तरफ,

धार के साथ बहता ही क्‍यों कर चला।

तेरे हाथों में किस्‍मत की कश्‍ती रही।

और के द्वार बैठा यूं, क्‍यों कर पला।।

एकदिन आना पड़ेगा तुझे होश में,

जिंदगी के सफर को, सुहाना बना।

चूक जो यूं गया, फेर पछताएगा।

जाएगा छोड़ इसको, तना ही तना।।

लौट आओ अभी भी, यूं अपनी जमीं,

कारवां ये समय का निकल जाएगा।।

फेर निश्‍चय ही मनमस्‍त होगी जमीं,

भोर-ऊषा लिए, द्वार पर गाएगा।।